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👉एक लड़की ने कहा कीयदि मां बाप को रखने का अधिकार बेटियों को मिल जाए तो पूरे देश में वृद्धाश्रम नहीं होगाI love mom and dadइस पर लड़के ने बहुत ही समझदारी से जवाब दियाअगर वही बेटियां शादी के बाद अपने सास-ससुर को अपना मां बाप मानने तोदेश तो क्या पूरी दुनिया में एक भी वृद्धाश्रम नहीं रहेगा🙏 shiwuu🙏

जानिए लिव इन रिलेशनशिप से संबंधित भारतीय कानून Shadab Salim22 July 2020 8:11 PM 788 SHARES आधुनिक समय में लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ता जा रहा है। कामकाजी युवा शादी के स्थान पर लिव इन रिलेशनशिप को भी महत्व दे रहे हैं। लिव इन... बड़े नगरों में अधिक उपयोग में लाया जाता है। महिला-पुरुष का बगैर विवाह के एक साथ रहने की वाली व्यवस्था को लिव इन रिलेशनशिप कहा जाता है। लिव इन... पश्चिम की जीवन शैली है तथा भारतीयों ने इसे तेजी से अपनाना शुरू किया है। विवाह में जाति तथा धार्मिक बंधन तथा अन्य बंधन होने के कारण युवक-युवती लिव इन में साथ रहने को प्राथमिकता देने लगे हैं। Also Read - जानिए अपीलीय न्यायालय की शक्तियां और पक्षकारों को अपील का अधिकार इस प्रकार की व्यवस्था जब समाज में लोगों के भीतर पनपने लगी है तो इस पर एक व्यवस्थित कानून भी आवश्यक हो चला है। इस लेख के माध्यम से लेखक लिव इन पर अब तक की भारतीय कानून व्यवस्था पर विस्तार पूर्वक जानकारी दे रहा है। लिव इन अपराध नहीं सामाजिक स्तर पर लिव इन को भले ही मान्यता नहीं दी जाती हो तथा विभिन्न धर्मों में इसे मान्यता न दी जाती हो परंतु भारतीय विधि लिव इन को कोई अपराध नहीं मानती। भारत में लिव इन जैसी प्रथा वैध है तथा कोई भी दो लोग लिव मेंं इन रह सकते हैं, यह भारतीय विधि में पूर्णतः वैध है। Also Read - दंड प्रक्रिया संहिता की प्रसिद्ध धारा 151 का व्यावहारिक रूप समझिए लिव इन पर भारतीय कानून अब तक तो भारत की पार्लियामेंट तथा किसी स्टेट के विधानमंडल ने लिव इन... पर कोई व्यवस्थित सहिंताबद्ध अधिनियम का निर्माण नहीं किया है परंतु घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 2( f ) के अंतर्गत लिव इन.. की परिभाषा प्राप्त होती है, क्योंकि घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत लिव इन.. में साथ रहने वाले लोग भी संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं। घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 2( f ) के अनुसार Also Read - अपील क्या होती है तथा दोषसिद्धि से अपील के संदर्भ में कुछ विशेष बातें "घरेलू नातेदारी से ऐसे दो व्यक्तियों के बीच नातेदारी अभिप्रेत है जो साझी गृहस्थी में एक साथ रहते हैं या किसी समय एक साथ रह चुके हैं, जब वे समररक्तता, विवाह द्वारा या विवाह, दत्तक ग्रहण की प्रकृति की किसी नातेदारी द्वारा संबंधित है या एक अविभक्त कुटुंब के रूप में एक साथ रहने वाले कुटुम के सदस्य हैं।" घरेलू हिंसा अधिनियम की इस धारा से यह प्रतीत होता है कि लिव इन जैसे संबंधों को भारतीय विधानों में स्थान दिया गया है। इस धारा के अतिरिक्त समय-समय पर उच्चतम न्यायालय में लिव इन से संबंधित मुकदमे आते रहे हैं जिन पर लिव इन जैसी व्यवस्था को लेकर विधानों का निर्माण होता रहा है। Also Read - राजस्थान सियासी संकट: जानिए कब यह माना जाता है कि सदन सदस्य ने अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है? भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय किसी सहिंताबद्ध कानून जैसा स्थान रखते हैं तथा किसी संहिताबद्ध कानून के अभाव में उच्चतम न्यायालय के दिए गए निर्णय कानून की तरह कार्य करते हैं। भले ही कोई सहिंताबद्ध कानून लिव इन व्यवस्था के संदर्भ में उपस्थित नहीं हो परंतु उच्चतम न्यायालय के न्याय निर्णय लिव इन से संबंधित व्यवस्था पर मार्गदर्शन कर रहे हैं। वह न्याय निर्णय अग्रलिखित हैं- लिव इन... के लिए शर्तें उच्चतम न्यायालय में इंदिरा शर्मा बनाम वीएवी शर्मा 2013 के मामले में लिव इन... से संबंधित संपूर्ण गाइडलाइंस को प्रस्तुत किया है। लिव इन व्यवस्था से संबंधित सभी प्रश्नों के उत्तर दे दिए गए हैं तथा उन शर्तों को तय किया है जिनके अधीन रहते हुए वैध लिव इन किया जा सकता है। 1)- साथ रहने की युक्तियुक्त अवधि- किसी भी लिव इन के दोनों पक्षकार साथ रहने की एक युक्तियुक्त अवधि में होना चाहिए। कोई भी पक्षकार इस तरह से नहीं होंगे कि किसी भी समय साथ रह रहे हैं और किसी भी समय साथ नहीं रह रहे हैं। साथ रहने के लिए एक युक्तियुक्त अवधि आवश्यक है। यदि उपयुक्त अवधि को पूरा कर लिया जाता है तो लिव इन माना जाएगा। युक्तियुक्त अवधि से आशय ऐसी अवधि से है, जिससे यह माना जा सकें कि किसी एक विशेष समय से लिव इन के पक्षकार साथ में रहे है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि कहीं एक-दो दिन के लिए दो पक्षकार एक साथ रह लिए तथा फिर चले गए, फिर कुछ महीनों या वर्षों के बाद साथ रहने लगे फिर चले गए। निरंतर युक्तियुक्त अवधि लिव इन के लिए आवश्यक है। ऐसी अवधि 1 माह, 2 माह भी हो सकती है पर इसके लिए कोई तय समय सीमा नहीं है। 2)- एक घर में साथ रहेंं लिव इन के पक्षकारों का पति पत्नी के भांति एक घर में साथ रहना आवश्यक है। एक घर को लिव इन के पक्षकार उपयोग में लाते हैं तथा एक ही छत के नीचे रहते हैं उनका अपना एक ठिकाना होता है एक घर होता है। 3)- एक ही घर की वस्तुओं का उपयोग लिव इन के दोनों पक्षकार एक ही घर की वस्तुओं का संयुक्त रूप से उपयोग कर रहे हो, जिस प्रकार एक पति पत्नी किसी एक घर में साथ रहते हुए चीजों का उपयोग करते हैं। 4) घर के कामों में एक दूसरे की सहायता दो पक्षकार घर में एक साथ रहते हुए घर के कामों में एक दूसरे की सहायता करते हो तथा इस प्रकार घर के काम बंटे हुए हों। 5)- बच्चों को स्नेह लिव इन के पक्षकार अपने बच्चों को स्नेहपूर्वक अपने साथ रखते हों तथा उनसे इसी प्रकार का स्नेह और प्रेम रखते हों, जिस प्रकार का स्नेह माता पिता अपने बच्चों से रखते हैं, जिस प्रकार का प्रेम जो पति-पत्नी अपने द्वारा उत्पन्न की गयी संतान के साथ रखते हैं। 6)- लोगों को इस बात की सूचना हो कि दोनों साथ रहते हैं जब लिव इन के पक्षकार साथ रहते हैं तो समाज में ऐसी सूचना होना चाहिए कि वह दोनों पक्षकार पति-पत्नी की भांति एक घर को साझा करते हुए एक साथ रहते हैं तथा उन दोनों का एक साथ रहने का सामान्य आशय है। वे दोनों आपस में शारीरिक संबंध भी बनाते होंगे क्योंकि दोनों पति-पत्नी की भांति एक साथ रहेंगे तो यह संभव है कि उनमें शारीरिक संबंध की स्थापना भी होगी। इसका अर्थ यह है कि जारकर्म की भांति का कोई दब छिपकर संबंध नहीं होना चाहिए जिससे जानने वाले लोगों को ही यह जानकारी न हो कि यह साथ रहते हैं। 7)-लिव इन के पक्षकार वयस्क हों लिव इन के पक्षकार प्राप्तव्य हों। उन्होंने वयस्क होने की आयु प्राप्त कर ली हो। भारतीय व्यस्तता अधिनियम के अंतर्गत वयस्कता की आयु 18 वर्ष है। 8)- स्वस्थ चित्त हो 9)- एक महत्वपूर्ण शर्त यह है कि लिव इन में रहते समय ऐसे पक्षकारों में से किसी का भी पूर्व में कोई पति या पत्नी नहीं होना चाहिए यदि कोई पति या पत्नी के रहते हुए लिव इन करता है तो यह लिव इन अवैध होगा। लता सिंह बनाम स्टेट ऑफ यूपी 2006 के एक मामले में दो पक्षकारों ने भागकर मंदिर में विवाह कर लिया था तथा साथ रहने लगे थे। उनका विवाह विवाह के कर्मकांड के अनुसार पूर्ण नहीं हुआ था, परंतु उच्चतम न्यायालय में इस मामले में यह माना कि दो वयस्कता प्राप्त पक्षकार अपनी स्वेच्छा से पति-पत्नी के रूप में एक साथ रह सकते हैं तथा संतान उत्पत्ति भी कर सकते हैं और इसके लिए किसी धार्मिक कर्मकांड किए जाए या फिर किसी वैध विवाह की कोई आवश्यकता भी नहीं है। इस प्रकार से दो लोगों का साथ में रहना कदापि अपराध नहीं माना जा सकता। लिव इन की महिला पक्षकार को भरण पोषण का अधिकार चनमुनिया बनाम वीरेंद्र कुमार चनमुनिया के मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि लिव इन की महिला पक्षकार लिव इन के पुरुष पक्षकार से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत भरण पोषण प्राप्त करने का अधिकार रखती है तथा महिला को यह कहकर भरण पोषण के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता कि उसने कोई वैध विवाह नहीं किया था। यदि दोनों पक्ष कार पति-पत्नी की भांति एक साथ लिव इन जैसी व्यवस्था में रहे थे तो महिला पक्षकार पुरुष पक्षकार से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत भरण पोषण की मांग कर सकती है। लिव इन से उत्पन्न हुई संतान को संपत्ति में उत्तराधिकार लिव इन की अवधि में साथ रहते हुए लिव इन के पक्षकारों में यदि कोई संतान उत्पन्न होती है तो इस प्रकार से उत्पन्न हुई संतान को पिता की संपत्ति में तथा माता की संपत्ति में और इन दोनों को विरासत में मिली हुई संपत्ति में उत्तराधिकार का इस भांति ही अधिकार होगा, जिस भांति एक वैध विवाह से उत्पन्न हुई संतानों को होता है। यह बात रविंद्र सिंह बनाम मल्लिका अर्जुन के मामले में 2011 को भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा कही गयी। नंदकुमार बनाम स्टेट ऑफ केरला के मामले में यह कहा गया है कि यदि पुरुष की आयु विवाह के समय 21 वर्ष नहीं थी तथा वह पुरुष 18 वर्ष से अधिक का था तो ऐसी परिस्थिति में विवाह भले न हो पर लिव इन माना जा सकता है। वैध विवाह के पक्षकारों का लिव इन अवैध ऐसे लिव-इन-कपल जिनकी शादी अन्य व्यक्तियों के साथ अब भी अस्तित्व में है, परंतु अब वह दोनों एक साथ रह रहे हैं, ऐसा लिव इन वैध नहीं होगा और कानूनन उसे कोई संरक्षण नहीं मिलेगा। अखलेश व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य रिट सी नंबर 6681/2020 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि जब एक पुरुष और एक महिला, अन्य व्यक्तियों के साथ उनके विवाह के अस्तित्व के दौरान ( कानूनी तौर पर अन्य व्यक्तियों के साथ उनका विवाह खत्म न हुआ हो), एक साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहते हैं तो वे कानून के तहत किसी भी संरक्षण के हकदार नहीं होंगे। इस मामले में अदालत ने कहा कि "दोनों याचिकाकर्ताओं के विवाह को कानून के अनुसार समाप्त नहीं किया गया है। अन्य साथी के साथ उनके विवाह के निर्वाह के दौरान, अदालत के लिए ऐसे जोड़े को सुरक्षा प्रदान करना संभव नहीं है, जो वस्तुतः कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं।'' अदालत ने कहा कि विवाह की पवित्रता को संरक्षित करना होगा। यदि कोई पक्षकार इससे बाहर निकलना चाहता है, तो वह हमेशा वैध तरीके से विवाह विच्छेद करने की मांग कर सकता है। हालांकि, न्यायालय उन लोगों को सहायता नहीं दे सकता है जो कानून का पालन नहीं करना चाहते। TAGSLLIVE IN RELATIONSHIP Next Story जानिए हमारा कानून जानिए अपीलीय न्यायालय की शक्तियां और पक्षकारों को अपील का अधिकार Shadab Salim25 July 2020 11:15 AM दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्याय 29 के अंतर्गत किसी प्रकरण के पक्षकारों को अपील का अधिकार दिया गया है। परिवादी, अभियोजन पक्ष और अभियुक्त ये तीनों ही अपील कर सकते हैं। परिवाद द्वारा संस्थित मामलों में परिवादी को भी अपील करने का अधिकार उपलब्ध होता है। ऐसी परिस्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (सीआरपीसी) के अंतर्गत अपीलीय न्यायालय की शक्तियों का उल्लेख भी आवश्यक हो जाता है। संहिता के अध्याय अपील के अंतर्गत सीआरपीसी की धारा 386 अपीलीय न्यायालय की शक्तियों के संदर्भ में विस्तार पूर्वक प्रावधान करती है। अपीलीय न्यायालय को अपनी यह शक्तियां तीन प्रकार से प्राप्त होती है- 1)- दोषसिद्धि के आदेश से की गयी अपील की दशा में। 2)-दंडादेश की वृद्धि के लिए की अपील के संदर्भ में 3)- दोषमुक्ति के आदेश से की गयी अपील की दशा। इस प्रकार से की गयी किसी भी अपील में अपीलीय न्यायालय अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। सीआरपीसी की धारा 386 इस धारा के अंतर्गत अपीलीय न्यायालय द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग दो शर्तों को पूरा कर लेने के बाद ही किया जाएगा- 1)- यह कि न्यायालय अपील के निस्तारण के पूर्व मामले से संबंधित आवश्यक अभिलेखों का परिशीलन कर ले। 2)- यदि अपीलार्थी या उसका वकील हाजिर है तो उसे और यदि लोक अभियोजक हाजिर है तो उसे सीआरपीसी की धारा 377, धारा 378 के अधीन अपील की दशा में यदि अभियुक्त हाजिर है तो उसे सुनने के पश्चात ही अपील पर विचार करें। अपीलीय न्यायालय को अपनी अपीलीय शक्तियों का प्रयोग करने के पूर्व शर्तों की पूर्ति करना होती है, यदि कोई भी आपराधिक अपील धारा 384 के अधीन संक्षेपतः खारिज नहीं की जाती है तो उसका निस्तारण इस धारा 386 के अनुसार किया जाएगा। अभिलेखों का परिशीलन करने के पश्चात यदि अपीलीय न्यायालय अपील को संक्षेप खारिज नहीं करता है तो उसके बाद की प्रक्रिया धारा 386 के अंतर्गत दी गयी है। अपील के निस्तारण के अंतर्गत न्यायालय पक्षकारों को भी सुनेगा वह धारा 385 (2) के अधीन भेजे गए अभिलेखों के परिशीलन करने के बाद ही मामले में विधि के अनुसार निर्णय लेगा। अतुल चौधरी बनाम राज्य 1978 के एक मामले में कहा गया है कि इस धारा में पुनर्विचार के सिवाय रिमांड की शक्ति का कोई भी प्रावधान नहीं है। जहां अपील के अनुक्रम में दंड के प्रश्न पर सुनवायी की जानी हो तो इस तरह की सुनवायी का प्रक्रम हो तो उक्त दशा में अभियुक्त को रिमांड नहीं दिया जा सकता है। 1)- दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की दशा में अपीलीय न्यायालय को प्राप्त शक्तियां- जब कभी आरंभिक न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि की जाती है, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 374 के अंतर्गत अभियुक्त को दोषसिद्धि से अपील का अधिकार प्राप्त है। अपीलार्थी द्वारा की गयी इस प्रकार की अपील से अपीलीय न्यायालय की शक्तियां दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 में दी गयी है। इन शक्तियों के अनुसार- निष्कर्ष दंडादेश को पलट सकता है और अभियुक्त की दोषयुक्ति अनुचित कर सकता है या अपने अधीनस्थ न्यायालय को पुनर्विचार के लिए सुपुर्द करने का आदेश दे सकता है। दंडादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है अथवा निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना दंड के स्वरूप अथवा परिमाण में परिवर्तन कर सकता है किंतु इस प्रकार दंड में वृद्धि नहीं कर सकेगा। दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की दशा में अपीलीय न्यायालय को यह शक्तियां प्रमुख रूप से प्राप्त होती हैं। कालूराम बनाम दिल्ली राज्य एआईआर 2006 उच्चतम न्यायालय 260 के वाद में अभियुक्त के विचारण न्यायालय द्वारा धारा 304 भाग-1 और 34 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दोषसिद्धि की गयी थी जबकि उसके अन्य साथियों को दोषमुक्त कर दिया गया था। अतः अपीलार्थी ने अपनी दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील की जबकि परिवादियो ने अपीलार्थी को केवल धारा 304 भाग-1 अधीन दोषसिद्ध करने तथा उसके अन्य साथियों को दोषमुक्त किए जाने के विरुद्ध पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत की थी। उच्च न्यायालय में अपीलार्थी की अपील इस आधार पर खारिज कर दी क्योंकि वादियों द्वारा प्रस्तुत की गयी पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गयी थी। इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गयी। उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चय किया कि उच्च न्यायालय का निर्णय उचित नहीं था तथा परिवादियों की पुनरीक्षण याचिका खारिज होने से अपीलार्थी की अपील को खारिज नहीं किया जाना चाहिए था। अपील का निपटारा गुणावगुण (on merits) के आधार पर किया जाना अपेक्षित था। उच्चतम न्यायालय ने धारा 389 B की व्याख्या करते हुए अप्पासाहेब बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में कहा कि धारा 374 ऐसी अपील के प्रति लागू होती है जो अभियुक्त की दोषसिद्धि तथा दंडादेश के आदेश के विरुद्ध फाइल की गयी हो। इस धारा के प्रावधानों को पक्षकार की एक प्रकरण में की गयी दोषमुक्ति को किसी दूसरे प्रकरण में हुई उसकी दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील में विचार कर दोषसिद्धि में परिवर्तन करने हेतु प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए। अर्थात दूसरे प्रकरण में अभियुक्त की दोषसिद्धि के आधार पर प्रथम प्रकरण में हुई उसकी दोषमुक्ति को दोषसिद्धि में नहीं पलटा जा सकता है। 2)- दंडादेश को बढ़ाने के लिए की गयी अपील की दशा में अपीलीय न्यायालय को प्राप्त शक्तियां- अभियोजन पक्ष या परिवादी जब आरंभिक न्यायालय द्वारा किए गए विचारण के पश्चात अभियुक्त के दोष सिद्ध होने के बाद आरंभिक न्यायालय द्वारा दिए गए दंड से आहत होता है तथा दंड में वृद्धि के लिए जब अपील की जाती है तो यहां पर अपीलीय न्यायालय को क्या शक्तियां प्राप्त होती हैं इसका उल्लेख दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 की उपधारा 2 में किया गया है। निष्कर्ष आदेश को पलट सकता है और अभियुक्त को दोषमुक्त या उन्मोचित कर सकता है सक्षम न्यायालय को अभियुक्त के पुनर्विचार का आदेश दे सकता है। दंडादेश को यथावत रखते हुए निष्कर्ष में परिवर्तन कर सकता है। निष्कर्ष में परिवर्तन करके या किए बिना दंड के स्वरूप अथवा परिमाण में परिवर्तन कर सकता है जिससे उसमें वृद्धि एवं कमी हो जाए। यदि अपील किसी अन्य आदेश के विरुद्ध हुई है तो अपीलीय न्यायालय ऐसे आदेश को परिवर्तित कर सकता है या पलट सकता है। 3)- दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील में प्राप्त अपीलीय न्यायालय को शक्तियां- जहां दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील की दशा में अपीलीय न्यायालय- दोषमुक्ति के आदेश को उलट सकता है और निर्देश दे सकता है कि अतिरिक्त जांच की जाए अथवा अभियुक्त को यथास्थिति पुनर्विचारार्थ किया जाए या विचारार्थ सुपुर्द किया जाए। उसे दोषी ठहराते हुए विधि के अनुसार दंडादिष्ट कर सकता है। अपीलीय न्यायालय को प्राप्त इन शक्तियों के अतिरिक्त भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 के अंतर्गत शक्तियां उसे दी गयी हैं। कुछ प्रकरणों में ऐसी शक्तियों का उल्लेख प्राप्त होता है। अपीलीय न्यायालय को अपील के निस्तारण में संशोधन या कोई परिमाणिक अनुषांगिक आदेश जो न्याय संगत हो पारित करने की शक्ति प्राप्त है। किंतु उक्त शक्ति का प्रयोग कुछ दशाओं के अधीन ही किया जाना चाहिए। दंड में तब तक वृद्धि नहीं की जा सकती है जब तक कि अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण दर्शित करने का अवसर प्रदान ना किया गया हो। अपीलीय न्यायालय उपचार के लिए जिसे उसकी राय में अभियुक्त ने किया है उससे अधिक दंड नहीं देगा जो आदेश पारित करने वाले न्यायालय द्वारा ऐसे अपराध के लिए दिया जा सकता था। अंबिका सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1972 इलाहाबाद के मामले में यह कहा गया है अपील के अनुक्रम में किसी भी दशा में अपीलीय न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति के विरुद्ध कोई आदेश पारित नहीं किया जा सकता जो अपील का पक्षकार नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने सलीम जिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में अभी अभिनिर्धारित किया कि दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील के निपटारे के समय अपीलीय न्यायालय को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है- साक्षियों की विश्वसनीयता के बारे में विचारण न्यायालय का दृष्टिकोण। अभियुक्त के पक्ष में निर्दोषिता की परिकल्पना। किसी युक्तियुक्त आधार पर अभियुक्त को संदेह का लाभ दिए जाने की संभावना। विचारण न्यायालय द्वारा साक्ष्यों को सुनने तथा उनका परीक्षण किए जाने के पश्चात निकाले गए तथ्यों तथा निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने के पूर्व अपीलीय न्यायालय से अपेक्षित है कि इन सब बातों पर सावधानीपूर्वक विचार करें। मोहम्मद साबिर बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में बॉम्बे हाईकोर्ट ने अभिमत प्रकट किया कि यदि अभियुक्त की दोष सिद्धि के विरुद्ध अपील में अपीलीय न्यायालय कोई निरर्हता जोड़ता है तो इसे उसके दंड में वृद्धि माना जाएगा। कुरुप्पन थेवर बनाम तमिलनाडु राज्य के प्रकरण में अभियुक्त के विरुद्ध धारा 302 भारतीय दंड संहिता के अधीन हत्या का आरोप था तथा सेशन न्यायालय ने उसे धारा 304 भारतीय दंड संहिता के अपराध के लिए सिद्धदोष किया। सेशन न्यायालय ने आदेश के परिणाम स्वरूप अभियुक्त को धारा 302 के अपराध के लिए दोषमुक्त माना गया। दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील में अपीलार्थी को धारा 302 के अपराध के लिए दोषी नहीं कर सकता था क्योंकि उस अपराध के लिए दोषमुक्त माना जा चुका था। जब किसी व्यक्ति को अपील में दोषसिद्धि हुई हो, इसका अर्थ यह हुआ कि अपीलीय न्यायालय ने प्रारंभिक न्यायालय के स्थान पर अपनी शक्ति का प्रयोग किया है अतः उस व्यक्ति का दोषसिद्धि तथा दंड विचारण न्यायालय के निर्णय के दिनांक से ही प्रतिस्थापित तथा पूर्ण प्रभावी माना जाएगा। रामास्वामी नादर बनाम मद्रास राज्य एआईआर 1958 के मामले में कहा गया है अपील का निपटारा करते समय उच्च न्यायालय को यह शक्ति होगी कि वह अभियुक्त को दोष मुक्ति के आदेश को बहाल रखते हुए उसे किसी अन्य अपराध के लिए सिद्धदोष कर सकता है, जिसके लिए वह अधीनस्थ न्यायालय द्वारा इस संहिता की धारा 221( 2) के अधीन आरोपित किया गया है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने बाली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के बाद में अभिनिर्धारित किया है कि यदि अपील की सुनवायी हेतु निर्धारित तिथि को अपीलार्थी तथा उसका अधिवक्ता दोनों ही न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं रहते हैं तो न्यायालय अपील की सुनवायी को मुल्तवी करने के लिए बाध्य नहीं है तथा वह गुणावगुण ( Merits) के आधार पर अपील का निपटारा कर सकता है। न्यायालय ने अभिकथन किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि अपील की सुनवायी हेतु तिथि समय पर उसके वकील को न्यायालय में उपस्थित रहना चाहिए। ऐसा नहीं किया जाता तो न्यायालय गुणावगुण के आधार पर मामला निपटा सकता। यह बात अलग है कि दूरदर्शिता या अनुग्रह दिखाते हुए अपीलीय न्यायालय को किसी अगली तिथि के लिए स्थगित कर दे। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 384 भी अपीलीय न्यायालय को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह समुचित आधार ना होने पर अपील को संक्षेपतः खारिज कर सकता है। साधासिंह बनाम राज्य 1985 के मामले में कहा गया है कि धारा 386 के अंतर्गत अपीलीय न्यायालय को व्यापक शक्ति प्राप्त है। यदि न्यायालय की राय में अभियुक्त को दिया गया दंड अत्यधिक कठोर है तथा उसे परिवर्तित करना आवश्यक है तो वह दोषसिद्धि की पुष्टि करते हुए अभियुक्त के दंड में परिवर्तन कर सकता है या उसे कम कर सकता है। अपील की सुनवायी करते समय अपीलीय न्यायालय को अभियुक्त के दंड में वृद्धि करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार की शक्ति केवल उच्च न्यायालय को पुनरीक्षण न्यायालय के रूप में प्राप्त है। दंड में वृद्धि की जाने हेतु उच्च न्यायालय में अपील लोक अभियोजक द्वारा राज्य के निर्देशानुसार की जाती है। TAGSAPPELLATE COURT APPEAL #CRPC SIMILAR POSTS + VIEW MORE जानिए अपीलीय न्यायालय की शक्तियां और पक्षकारों को अपील का अधिकार 25 July 2020 11:15 AM दंड प्रक्रिया संहिता की प्रसिद्ध धारा 151 का व्यावहारिक रूप समझिए 24 July 2020 6:16 PM अपील क्या होती है तथा दोषसिद्धि से अपील के संदर्भ में कुछ विशेष बातें 23 July 2020 8:50 PM राजस्थान सियासी संकट: जानिए कब यह माना जाता है कि सदन सदस्य ने अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है? 22 July 2020 2:56 PM धारा 154 साक्ष्य अधिनियम: पक्षद्रोही गवाह (Hostile Witness) कौन होता है और कब उसे बुलाने वाला पक्ष उसका प्रति परीक्षण कर सकता है? 22 July 2020 10:00 AM कौन होता है सरकारी गवाह और कैसे मिलता है उसे क्षमादान 21 July 2020 10:00 AM ताज़ा खबरें + MORE जानिए अपीलीय न्यायालय की शक्तियां और पक्षकारों को अपील का अधिकार 84 नर्सों को नौकरी से हटाने के ख़िलाफ़ हमदर्द अस्पताल पर कार्रवाई के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका नाबालिग लड़के के यौन उत्पीड़न का मामला : सुलह होने पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने एफआईआर निरस्त की, अदालत ने रजिस्ट्री को पक्षकारों द्वारा की जमा करायी राशि ज़रूरतमंद वकीलों को देने के निर्देश दिए एससी/एसटी अधिनियम के तहत 'पीड़ित' में उस व्यक्ति के मां-बाप और परिवार के सदस्य भी शामिल, जिसके ख़िलाफ़ अपराध हुआ : कर्नाटक हाईकोर्ट इलाहाबाद हाईकोर्ट में 27 जुलाई से फिज़िकलऔर वर्चुअल दोनों तरह से सुनवाई होगी ENGLISH + MORE [Communal Hashtags] 'Mere Removal Of Content Not Sufficient': Telangana HC Asks Twitter To Enter Appearance; File Counter Affidavit Important Orders And Efforts Of The Jammu & Kashmir's Judiciary In Pandemic Times Delhi HC Stays Anti Profiteering Penalty Proceedings Against Patanjali Ayurved [Read Order] [Babri Demolition Case] "I am Innocent, Implicated In The Case Due To Political Influence and Ideological Inclination" LK Advani Tells Spl. Court Delhi HC Directs Delhi University To Immediately Draw Up Mechanism For Issuing Digital Degree Certificates, Issues Notice To National Academic Depository [Read Order] The Meanderings Of Section 65B, Indian Evidence Act, 1872- A Poem Newsletters Directly in your Mailbox © All Rights Reserved @LiveLawPowered By Hocalwire Who We AreCareersAdvertise With UsContact UsPrivacy PolicyTerms And Conditions 788 SHAREShttps://hindi.livelaw.in/know-the-law/live-in-relationship-160317

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'मंगल' मस्ती में चूर चललबलिया के बांका बीर चललआज़ादी की लड़ाई में अविभाज्य हिंदुस्तान के हर जिले, गाँव, कस्बे ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। लेकिन ये सौभाग्य एक ही जिले के हाथ आया कि अंग्रेजों और उस के पिठ्ठू हिन्दुस्तानी राजाओं ने उस जिले का नाम ही "बागी" रख दिया। ब्रितानी हुकूमत को सीधी चुनौती देने वाले उसी बाग़ी बलिया के शेर, प्रथम स्वातंत्र्य समर के प्रथम हुतात्मा, वीर योद्धा मंगल पांडेय जी को उनके जन्मदिन पर कृतज्ञ राष्ट्र का स्मरण और वंदन। 🇮🇳 🙏🏻💖

कोरोना वायरसविश्वविद्यालय और कॉलेजों की अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को लेकर यूजीसी ने फिर जारी किया बयानSubscribe to Notificationsनई दिल्ली, जागरण ब्यूरो। विश्वविद्यालय की अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने एक बार से जरूरी करार देते हुए इसे छात्रों के व्यापक हित में बताया है। ऐसे में राज्य परीक्षाओं को लेकर कोई भी फैसला लेने से पहले छात्रों के हितों और शैक्षणिक गुणवत्ता पर पड़ने वाले प्रभाव का भी आंकलन करें। वहीं परीक्षाओं को लेकर जारी गाइडलाइन पर यूजीसी कहना है कि आयोग के रेगुलेशन के तहत सभी विश्वविद्यालय उसे मानने के लिए बाध्य है। हालांकि यह विवाद का समय नहीं है। सभी विवि को तय गाइडलाइन के तहत परीक्षाएं करानी चाहिए। सभी राज्यों को भेजी गई संशोधित गाइडलाइन और परीक्षाओं को लेकर तैयार की गई एसओपीआयोग के सचिव रजनीश जैन ने कहा कि उन्होंने सभी राज्यों को परीक्षाओं को लेकर जारी गाइडलाइन और उसे कराने के लिए तय किए गए मानकों का ब्यौरा भेज दिया है। फिर भी यदि विश्वविद्यालयों को किसी भी मुद्दे को लेकर कोई भ्रम है, तो वह संपर्क कर सकते है। उन्होंने कहा कि जहां तक बात परीक्षाओं की है तो कोरोना संकट के चलते वह पहले से इसे लेकर विश्वविद्यालयों को काफी सहूलियतें दे चुके हैं। इसमें वह ऑनलाइन और ऑफलाइन किसी भी तरीके से करा सकते हैं। जिसमें वह ओपन बुक एक्जाम, एमसीक्यू (मल्टीपल च्वायस क्यूश्चन) जैसे परीक्षा के तरीके भी अपना सकते है।

anupam kher, mother,brother, sister in law, niece corona positive

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abhishek bacchan and amithab bacchan found Corona positive. but other family members negative 😔admit in naanvati hospital Mumbai but in 2nd report aishwarya and aradhya bacchan also found corona post😕😕

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